वो फिर खेल रहा था खेल
आँख बंद करके चलने का
कुछ कदम चलता
आँख खोलता
दृष्टि से दूरी टटोलता
और फिर
बढ़ जाता
कुछ कदम मूँद कर आँखे
खेल
यह
आँखे मूंदने और खोलने का
आखिर तब
हो चला खतरनाक
जब
आँखों ने बंद होने के बाद
ठीक समय पर खुलने से इंकार कर दिया
पर उस क्षण
न जाने कैसे
पर हो चला था वह
खतरे की समझ से भी
एक अव्यक्त आश्वस्ति
बिछा गया था कोई
भीतर उसके
ऐसे
की
आँख मूंदते हुए भी
जाग्रत रह गया था वह
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
८ नवम्बर २०१४
1 comment:
कोई सैंकड़ों को जगा जाये वो खुद कितने दिनों से सोया नही होगा ...
बेहतरीन कविता
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