१
सब कुछ संतुलित हो
समन्वित हो
ऐसा यदि हो भी जाता है
किसी क्षण
वो क्षण ठहर नहीं पाता है
२
हम बार बार
साम्य अवस्था से अलग होते हैं
बार बार
करते हैं प्रयास
सम पर आने का,
बस इतना है
अभ्यास के साथ
जल्दी जल्दी तय हो जाती है
यह दूरी
३
कभी परिहास में
पूछ बैठता हूँ
उससे
वह जो केंद्र है सृष्टि का
'तुम चाहते हो
कब्जा ना करे कोई
तुम्हारे स्थान पर
क्या इसीलिये
सबको भगाते रहते हो?
समन्वित केंद्र से दूर छिटकाते,
भटकाते, खिझाते, रुलाते,
फिर रास्ता बता कर
अपने पास बुलाते
पर फिर
फिसला कर
इस 'अविचलित केंद्र' से दूर हटाते,
४
वो बस
मुस्कुराता है
लगता हूँ
अगर उसे विश्वास होता
कि मैं समझ पाऊंगा
तो शायद कहता
'इस 'समन्वित पूर्ण आनंद शिखर तक
पहुँच कर भी जो मुझमें
पूरी तरह नहीं मिल पाता,
वो अपने 'सीमित रूप' का उत्सव मनाने
खुद ही मुझसे दूर जाता,
व्यवस्था है कुछ ऐसी
जो खुद ना चाहे
मेरे पास नहीं ठहर पाता'
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर ४ मिनट
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