Wednesday, February 24, 2010

118- दिन को भेजते हैं चिट्ठियां


दिन को भेजते हैं चिट्ठियां 
पहले तो
कि हमें यहाँ - वहां बुलाना
और फिर
कसमसाते हैं 
जब पड़ता है इधर - उधर जाना


कैसे हो जाता है ऐसा
हम जो हैं, जहाँ हैं
उसी जगह में
कुछ लोग पूर्णता दिखाते हैं

और कुछ लोग 
हममें अभावग्रस्त होने का
नया सा बोध जगाते हैं


सबसे अलग हट कर
क्यों हम अपने आपको
शुद्ध रूप में
देख ही नहीं पाते हैं

किसी ओर से मिल लेते हैं
जब भी खुद से
मिलने का मानस बनाते हैं


प्रश्न तो तीन शब्दों का है
'कौन हूँ मैं?'
पर इसके जवाब में
तीनो काल आकर मिल जाते हैं

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार, २४ फरवरी १०
सुबह ८ बज कर ०७ मिनट


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