है कुछ बात दिखती नहीं जो
पर करती है असर
ऐसी की जो दीखता है
इसी से होता मुखर
है कुछ बात जिसे बनाने
बैठता दिन -रात अपने साथ
है यह बात जो बनाती
बिगाड़ती सारे हालात
इस बात को अभी
अभी गोद में खिलाता
जब तुमसे बतियाता
सारा जग जगमगाता
प्रसन्नता का झरना
बह बह आता
मुस्कान से फूटती
सुंदर मौन की गाथा
सुन रही है साँसे तुम्हारी
ये विस्मय मदमाता
जिसके स्पर्श से
कण कण खिलखिलाता
है कुछ बात दिखती नहीं जो
कौन इसे बनाता
और वह जो इस छुपाता
क्या है मेरा तुम्हारा
इस अदृश्य उपस्थिति से नाता
प्रश्न श्न यूँ ही उठाता
जैसे कोइ ढलान पर दौड़ता जाता
औ स्वयं को खोकर
सब कुछ पा जाता
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२० अक्टूबर २०१९