१
उतरती है गंगा
भगीरथ के बुलावे पर
बहती छल छल
करूणा सुन कर तीव्र पुकार
उद्धार की
२
पीढ़ी दर पीढ़ी
अनुस्यूत
एक भाव
एक सात्विक सातत्य
सहेजता
सम्बन्ध समग्रता से
खिल जाता सौंदर्य शाश्वत का
३
नदी बह रही
अब
छोड़ मर्यादा
तट की
निश्चिंत है
छोड़ कर स्वरुप अपना
आ मिली
सागर में
कभी कभी खो देना ही
होता है
पा लेना सचमुच
४
बाहें फैला
पकड़ रहा
बादलों को
खिलखिला कर स्वीकारता
पराजय अपनी
हो गया
अंकित
भीगापन
अलौकिक हृदय पर
५
जुड़ता है
बिना जोड़े
मिले उसे
जो स्वयं को छोड़े
इसी की महिमा
गाये गगन
सुन कर मगन
झूमें पावन
सौंप इसे
तन - मन
पा लिया
अनंत आंगन
२५ मई २०१७
अशोक व्यास
अरुणाचल आश्रम, न्यूयार्क
4 comments:
वाह।
वाह्ह...सुंदर👌
बहुत खूबसूरत
बहुत सुन्दर...
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