स्वामी श्री ईश्वरानन्दगिरी जी महाराज (चित्र- अभिषेक जोशी) |
१
किसी एक क्षण में
सहसा उड़ा ले जाता कोई
सारी खुशियां
सारा संतोष
सरक जाता
आधार आनंद का
न जाने कैसे
एक नन्हे से क्षण में
अचिन्ही पारदर्शी परत
खिसका देता संतुलन
संवाद समीकरण का
तब
त्रिशंकु की तरह
धरती - आकाश के बीच लटकता
तुम्हें ही पुकारता हूँ विराट
क्योंकि
तुम ही तो हो धरती
तुम ही हो ना आकाश !
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सितम्बा २०१४
२
जब जब
जहाँ जहाँ
लड़खड़ा कर गिरने से बचने के लिए
छू लेता हूँ
तुम्हारा नाम ,
उज्जीवित होना अपना
अज्ञात कंदराओं से
विस्मित करता है
मुझे ही
पर मेरे स्वामी
टूट - टूट ,बिखरने -जुड़ने का
यह क्रम
यह एक चक्र अनवरत
कब तक और किसलिए
कभ मिलेगी मुक्ति
अपनी मूढ़ता से- ओ मोहन मेरे
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सितम्बर २०१४
4 comments:
बहुत ही सुन्दर
सटीक , सार्थक पंक्तियाँ
करुण पुकार !
दिल को छू गई.
आभार
दोनों कवितायों में करुण पुकार है ...बहुत सुन्दर
रब का इशारा
सुख दुःख दोनों में अपने आराध्य देव को याद रखना ही मुक्ति की और पहली सफल सीडी है
उचित लेखन और प्रभावकारी भी
स्वागत है मेरी नवीनतम कविता पर रंगरूट
अच्छा लगे तो ज्वाइन भी करें
आभार।
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