और हवाओं की पूछ-ताछ के बाद
बचे हुए पेड़
सौम्य छाया लुटाते
अब तक
स्नेहसिक्त गंध पहुंचा रहे हैं
टूटी हुई शाखाओं तक
हवाओं के नए गीतों में
सांत्वना की मादक गंध है
भीगी हरियाली के बीच
सौन्दर्य की जो एक बहती हुई अनुभूति है
इसे थाम कर
ठहर जाना संभव नहीं
पर
नित्य मुक्त सौन्दर्य के पदचिन्ह
ठहर गए हैं
भीतर मेरे
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२८ अगस्त 2011
5 comments:
नित्य मुक्त सौन्दर्य के पदचिन्ह
ठहर गए हैं
भीतर मेरे
अशोक जी,आप नित्य मुक्त ही तो हैं.
नित्य मुक्त सौंदर्य के पदचिन्ह को अपने
अंदर ठहरा कर आत्म मुग्ध हो रहे हैं आप.
आपकी इस आत्म-मुग्धता को मेरा सादर नमन.
यह सोंधापन मन्त्रमुग्ध कर देता है।
मनोभावों को बेहद खूबसूरती से पिरोया है आपने....... हार्दिक बधाई।
मेरे ब्लॉग्स पर भी आपका स्वागत है -
http://ghazalyatra.blogspot.com/
http://varshasingh1.blogspot.com/
बहती हवाएं........बहती अनुभूति........सुंदर अभिव्यक्ति.....!!
अनुभूतियों का सुन्दर आकाश संजो रखा है अशोक जी आपने , आपका काव्य सब कुछ सच कह देता है बधाई
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