छुपा रहे
चाहे बरसों बरस
वह जो
बहुमूल्य है
बना रहता है मूल्य उसका
अब
इतने बरसों बाद
आतंरिक अहातों में
तुम्हारी दी हुई चाबी से
जब खोल रहा हूँ
बंद द्वार
देख रहा हूँ
प्रसन्नता के उजियारे का
यह
आलोकित झरना,
निर्मल आनद की यह पुलक,
और
निश्छल प्रेम का
यह स्फूर्तिदायक स्पर्श,
तो यह सब
छुपे रहे मेरे भीतर
बरसों बरस
और
छुप कर भी
बने रहे मूल्यवान
पर
ये भी हो सकता था
ढह जाती यह
देह की इमारत,
अपनी भीतर के
इस अक्षय कोष का
परिचय पाए बिना ही
अब जब जान लिया है
की
मालामाल हूँ मैं
और यह भी
की कंगाल नहीं है कोंई भी
अब हंसी इस बात पर
की अपनी पूंजी के बारे में
किसी को बताना चाहूं
तो इस पर
विश्वास कौन करेगा
सब कहते रहे हैं
'देखे पर ही विश्वास होता है'
और
देखने के लिए
वह चाबी चाहिए
जो स्वयं अदृश्य रूप में ही
ली और दी जा सकती है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ जुलाई २०११
2 comments:
बहुत सुंदर रचना ...
आन्तरिक अहातों में विश्व से भी अधिक स्थान है।
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