Sunday, April 25, 2010

वो जो 'शिखर' है


लौटते हुए
फिर एक बार देखा पलट कर
शिखर की तरफ
और सहसा
छूट गया
विचार लौटने का
एकाकीपन में
कभी कभी
भीड़ से अधिक अपनापन 
मिल जाता है
जिसके कारण
ढूंढते हुए उसे 
पहुंचा था शिखर तक
लुढ़कते हुए
एक क्षण लगा यूँ 
कि शायद इस बार
गया हाथ से
ऊँचाई का साथ,

रुक जाने पर पाया 
ऊँचाई हो या ना हो
वो जो 'शिखर' है
हर स्तर पर
फिसलन की टूटन से
बचाता है
और 
जहाँ हों, जैसे हों
उन्नत कर जाता है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर ३० मिनट
रविवार, अप्रैल २५, २०१०

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