जिस बात को हम
अपनी सफलता मानते हैं
कोई और उसी बात में
देख लेता है असफलता हमारी
हार जीत की हमारी समझ में
अक्सर
एक सन्दर्भ छोटा सा
जुड़ आता है
अहंकार के साथ
यूँ सुनते पढ़ते हैं बार बार
प्यार जो है
उसका रूप खिलता है
अहंकार के पार
तो क्या हमने
सहमती और असहमति के घेरे में
एक दूसरे को चोट पहुंचाने
या खुदको बचाने के खेल में
प्यार को शुद्ध रूप में जाना ही नहीं ?
या शायद प्यार को जान लेना पर्याप्त नहीं
प्यार को जीना होता है
ये भी हो सकता है
कि
बिना प्यार के सीख ही नहीं सकते जीना
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
गुरुवार, १८ मार्च २०१०
सुबह ७ बज कर ३८ मिनट
1 comment:
achha likha hain
Post a Comment