न जाने क्यूँ
हो रहा कुछ ऐसा बार बार
जा नहीं पाता
एक सीमित घेरे के पार
अवसरों से हाथ मिलाता हूँ
फसल नई उगाता हूँ
पर फिर एकाकीपन में
चुप चाप खड़ा हो जाता हूँ
अपेक्षाओं के नए नए तीर चलाता हूँ
निशाने पर खुदको ही खड़ा पाता हूँ
घायल होते जाने होने का दर्द जारी
आंसू छुपा कर फिर फिर मुस्कुराता हूँ
अब मंज़िल से दूर रह रह कर
इस तरह कसमसाता हूँ
घर से बाहर एक नया कदम
उठाने में घबराता हूँ
न जाने क्यों
हो रहा बार बार
फिसलता जाए है
मुझसे विस्तार
ये जड़ता की मार
ये मूढ़ता का वार
सब लगे निस्सार
कहो कैसे पाऊं सार
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
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