Monday, April 4, 2016

फेसबुक की फेस विहीन धारा



फेसबुक 
अब कभी जोधपुर का सोजती गेट 
कभी न्यूयार्क का टाइम स्क्वायर 
कभी अपने अपने शहर की सड़क 
या प्रमुख हाईवे 

फेस बुक में 
सारे जहाँ के लोग 
फेस विहीन से 
रुके रुके 
चलते हुए 
एक रैले में 

एक धारा सी 
बहती है 
ऐसी फेसबुक में 
जिसका नहीं है किनारा कोई 

इस धारा में 
कभी 
वो मिलते हैं 
जिनसे हम मिलना चाहते हैं 
कभी 
वो मिलते हैं 
जो हमसे मिलना चाहते हैं 
कभी वो भी 
जिनसे हम मिलना नहीं चाहते 
और कभी कभी वो भी 
जो न हमसे मिलना चाहते 
न जिनसे हम मिलना चाहते 

फेसबुक 
कभी लाइक्स बटोरने का एक खेल सा 
भर देता 
क्षण भंगुर उत्तेजना 
प्रसन्नता या अप्रसन्नता का बुलबुला 
उपजाती फेसबुक 

जुड़े होने का भ्रम जगा कर 
कभी हमें और अधिक एकाकी कर जाती 


सोशल मीडिया 
अब एक आवश्यकता 
पर 
कभी दूर कर समाज से 
हम सब पर फ़िल्मी कलाकारों की तरह 
एक छवि बनाने का दबाव लगाता 
 अनजाने में 
 सहज जीवन का सौंदर्य न जाने कब
हमसे छिटक जाता 

कल्पना करें 
आये एक ऐसा दिन 
जिस जिससे भी मिलें 
बस 'नमस्कार' या 'हेलो' मात्र कहें 
सचमुच बात करने का समय 
न हो किसी के पास 

क्या होगा इसका 
यह जो गहरे सवाल लेकर 
ज़िन्दगी को जानने समझने की है प्यास?


फेसबुक की फेस विहीन धारा में 
 क्या हमसे हमारी भीतर देखने की वृत्ति छूट जाती है 
 हर नई सुविधा अपने साथ कुछ  
अतिरिक्त जिम्मेवारियां लेकर आती है 
जिनकी समझ हमें बहुत देर बाद आती है 
तब तक जीवन की गाड़ी 
 कितना कुछ 
बहुत पीछे छोड़ जाती है 
हमारे पास रहती है 
एक कसक सी 
जो न कही जाती है 
न सही जाती है 

क्या अब फेसबुक पर एक नया ग्रुप बनाएं 
जिसमें हम इस बात पर बतियाएँ 
की इस फेस विहीन धारा में 
अपने चेहरे से अपनी पहचान कैसे बचाएँ 

कहीं ऐसा न हो की हमें पता ही न चले 
और हम खो जाएँ 

अशोक व्यास, न्यूयार्क, अमेरिका
४ अप्रैल २०१६ 









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