Thursday, June 2, 2011

तत्क्षण


हर बात से परे
एक शून्य का सा भाव प्रकट कर
उसके आलोकित वृत्त में रमते हुए
सहसा पुराने बीजों में से
अंकुरित होता है
कुछ नया
पहले कोपलें 
फिर वृक्ष
इस वृक्ष के साथ
कितनी शताब्दियों से जुड़ा हुआ हूँ मैं 

और हर बार
शून्य तक पहुँच कर
जब जब सोचा है
पूर्ण हो गयी यात्रा

न जाने कैसे 
शरारती बच्चे की तरह
ये कुछ बीज चहक कर कहते हैं
अभी पूर्णता नहीं 
अभी तो हम हैं
हमारी यात्रा है
उग कर तुम्हे लुभाने की
नचाने की
और तुम्हारे नृत्य में से
कुछ नए बीज बनाने की

अब उसकी गोद में बैठ कर
जिसके बीज से पनपा हूँ मैं  
पूछ रहा हूँ
शून्य तक जाने का वह तरीका
की कोई बीज छुप कर
आ ना पाए मेरे साथ

यूं लगता है 
उसने कहा है
'तुम मुझसे छुप कर 
एक कदम भी मत चलो
बीज बनने ना पायेगा
प्रकट रहो 
पूरी तरह मेरे प्रति
पूर्ण ही पाओगे
स्वयं को 'तत्क्षण'

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२ जून २०११              

4 comments:

vandana gupta said...

सत्य की बहुत सुन्दर विवेचना।

प्रवीण पाण्डेय said...

मन का विस्तार बढ़ाती पंक्तियाँ।

Unknown said...

सुन्दर और अंतर तक भीगे अहसासों का बेहतरीन वर्णन ,सुन्दर कविता बधाई

Anupama Tripathi said...

प्रकट रहो
पूरी तरह मेरे प्रति
पूर्ण ही पाओगे
स्वयं को 'तत्क्षण'

bahut sunder bhav ..!!

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